तुम्हारी आंखों की हम पर नजर हो गई है
हमारी जिन्दगी तो गरीबों की सफर बन गई है
इस देश के आधे चमन में फूल क्यों खिलते नहीं?
इर्ष्या के पतझड की देखो असर हो गई है
स्वर्ग में बापू से हम फरियाद क्या करे?
आजादी के बंटवारे में कमी रह गई है
अन्याय की आंधी उठी है, वेदना है चारो तरफ
आंसुओं के समंदर में आंखें सभर हो गई है
ओ! न्याय की देवी बता, तेरे तोल को यह क्या हुआ?
पैसे के झुकाव की तु अब कबर बन गई है
देश की मिल्कियत में है हिस्सा सबका एक समान
बस्ती हमारी समृद्धि से लेकिन पर हो गई है
Thursday, August 20, 2009
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2 comments:
बेहतरीन रचना. इष्टमित्रों और परिवार सहित आपको, दशहरे की घणी रामराम.
रामराम.
achchi lagi aapki rachana
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