Thursday, August 20, 2009

पता चला है

तुम्हारी आंखों की हम पर नजर हो गई है
हमारी जिन्दगी तो गरीबों की सफर बन गई है
इस देश के आधे चमन में फूल क्यों खिलते नहीं?
इर्ष्या के पतझड की देखो असर हो गई है
स्वर्ग में बापू से हम फरियाद क्या करे?
आजादी के बंटवारे में कमी रह गई है
अन्याय की आंधी उठी है, वेदना है चारो तरफ
आंसुओं के समंदर में आंखें सभर हो गई है
ओ! न्याय की देवी बता, तेरे तोल को यह क्या हुआ?
पैसे के झुकाव की तु अब कबर बन गई है
देश की मिल्कियत में है हिस्सा सबका एक समान
बस्ती हमारी समृद्धि से लेकिन पर हो गई है

राजमार्ग पर

वेदना, व्यथा, अभाव, घाव, राजमार्ग पर
ला, सब कुछ यहां बिछा दे राजमार्ग पर
संकरी सडक यहां कहीं भटक ना जाना तु!
उस गली-कुचे को त्याग आ तु राजमार्ग पर
कब तब रहेगा फूटपाथ पर तु धुआं-धुंआ?
लाल सूरज की धधक जगा तु राजमार्ग पर
निकल मूषक की जमात से बुलंद खुद को बना
दे नगाडे पर धाव, आवाज उठा राजमार्ग पर
राजमार्ग है तु ही, तेरा ही यह पर्याय है
अन्याय के लिए लडने एक हो राजमार्ग पर

Monday, June 29, 2009

क्या क्या करे कविता ?






मौनता को शब्द देकर शब्द में जीवन संजोकर
हमें जीवन जीना सीखाती है कविता
घोर तम में जी रहे के घाव पर मरहम लगाकर
नई रोशनी की किरण देती है कविता
बिछडे मन को मिलाकर उजडे घर को बसाकर
जीवन संघर्ष करना सीखाती है कविता
शिशु की किलकारियों का कभी उत्सव मनाकर
जीवन की शुरुआत करना सीखाती है कविता
फूलवारी में फूलों के लिए तितलियां बनकर
फूलों की तरह महकना सीखाती है कविता
जहां ईश्वर ना पहुंचे उन सभी जगहों पर जाकर
बहुत कुछ हमें सीखा देती है कविता
जब पूरी दुनिया गहरी नींद में सोये तब कवि को जगाकर
अपनी कल्पना के भाव से दुनिया सजाती है कविता

कह नहीं सकते



इस शहर में तेरी सोच बदल जाये कह नहीं सकते
इस चेहरे पर दूसरा चेहरा लग जाये कह नहीं सकते
यह संकेत, अफवाएं और यह संदर्भ, घटनाएं
यह पूरा नक्शा कब बदल जाये कह नहीं सकते
मेरी आवाज पर बंदिशें लगाना इतना आसां नहीं
तुम्हारा साज कब बदल जाये कह नहीं सकते
जिनके घर शीशे के हो वो जरा संभल कर रहे
यहां किस पल में क्या हो जाये कह नहीं सकते

योग्यता



माता-पिता जीवित थे तब
उन्हें
अपमानित कर घर से बाहर किया
और अब
उनके मरने के बाद
उनकी तसवीर को देख
नीर बहाते उनकी ये संतानें
ऐसे कपूत संतानों को क्या कहें ?
तुम बचपन में जब लाचार थे तब
तुझे जिसने पाला वे माता-पिता
बुढापे में लाचार बने तब
उन्हें भी संभालने का
कर्तव्य निभाने जितना
योग्य तु भी बनना
कुत्ते पर हाथ फेरने वाले को
कुत्ता भी वफादार रहता है
क्या तुझ पर हाथ फेरने वाले माता-पिता को
वफादार रहने जितनी योग्यता तु नहीं रख सकता?

Thursday, April 23, 2009

आओ, प्रकृति से सीखें

पेड ऊंचे आसमान में हमको बढना सीखलाये
सर्जन के साथ विसर्जन की महिमा ये समझाये
मौन रहकर ये जीवन का संदेश हमें सुनाये
उसकी छाया के नीचे योगी ईश्वर को याद करे
खुद अंगार सहकर शीतलता जग को है देते
जलते मानव शीतलता पाते है उसकी छांव में
ऋषि सखा यह स्थिर खडे है पर उपकार करने
अनुकूलता-प्रतिकूलता में यह बढते है आगे-आगे
हवा और पेडों की जमती स्नेह की यहां पर यारी
वायु की गुदगुदी से गूंजे है स्नेह की मधुर सीतारी
गीता में भगवान कहते है, ‘पेडों में मैं हूं बसता’
उसकी तरह जो जियेगा वो जीवन में सदा रहेगा हंसता

Monday, April 20, 2009

ऐसी बनाये हम हमारी जिंदगी

हंसते रहे खिलते रहे संघषों से लडते रहे
ऐसी बनाये हम हमारी जिंदगी
अवरोधों से हम ना घबराये,
मुश्किल में भी हंसते जाये
सुख का अमृत बरसे तो भी
हम ना भीगे और ना भरमाये
सदा रहे समता के रंगों से खिलती हमारी जिंदगी
ऐसी बनाये हम हमारी जिंदगी
हमें मानव का अवतार मिला
मन-बुद्धि का उपहार मिला
डर-डर के हम क्यों जीये
हमें ईश्वर का आधार मिला
ऐ मालिक ! तेरी बंदगी छूटे ना कभी
ऐसी बनाये हम हमारी जिंदगी
मानव का मानव से हम नाता जोडेंगे
भेद दिवालों का हम सारे तोडेंगे
रागद्वैष भूलकर आत्मीयता का अमृत घोले
ऐसी बनाये हम हमारी जिंदगी

चिंता मत कर

चिंता मत कर ऐ इंसान, तेरे साथ रहेंगे भगवान
निर्भय बन तू सौंप उन्हें इस जीवन की कमान
चिंता करने से नहीं जग में कोई दु:ख होता है कम
सच्चा इंसान कोशिश करते-करते ही भरता है दम
किया ना चिंता अभिमन्यू ने जब चक्रव्यूह में थे फंसे
देख इस कर्तव्य को प्रभु के नयनों में से थे नीर बहे
कोशिश करते करते जीना ही है सच्चा बलिदान
धीरज से हर संजोगों का करना तू सन्मान
तुने जो भी मांगा प्रभु देता ही है आया
सुख-दु:ख में साथ रहकर उसने तुज पर प्रीत बहाया
उम्मीदें तेरी बढती गई हर बार ऐ इंसान
दे प्रभु तुझे जितना तु उसमें ही संतोष मान

Saturday, April 18, 2009

ऊंचाई की लडाई

ऊंचाई के लिए यह लडाई है
नींव की भी उसे बहुत जरुरत है
गलती सिर्फ कदमों की नहीं,
यह डगर ही बडी मुश्किलों से भरी है
तु न करना गिनती कदमों के अपने
क्योंकि कबसे चल रहा यह खेल है
थोडा सा भी आराम अब मिलता नहीं
सब कुछ आज, अभी, इसी वक्त की जरुरत है

अकेला शहर

यह शोर-शराबे का शहर है
ओ सन्नाटे तुझे क्या खबर है?
रात के पीछे रात चली जा रही है
बंद हो गया अब सूरज का सफर है
शोर-शराबे में भी अकेला शहर है
किसकी लगी आज उसको नजर है
देख, फिर से निकला है सूरज वहां पर
मगर आज वो परछाई के बगैर है

मुश्किल

कभी मुश्किल बन जाती मुश्किल है
मंजिल भी हो जाती मुश्किल है
खुद हमारे पदचिन्ह हमारी मुश्किल बन जाते है
सभी मानते है कि मंजिल होती है मुश्किल
लेकिन पहले बाधाएं ही मुश्किल बन जाती है

Friday, April 17, 2009

जुते-चप्पल की हेट्रिक

आज के अखबार में ताजा छपी खबर
बीजेपी के संमेलन में हादसा कल भरी दोपहर
अपनी-अपनी डफली, अपना अपना राग
जनतंत्र में घुल गया है बस आग ही आग
सब दल के है सूर नए बदली सबकी चाल
आग लगाता-सा लगे ये चुनाव इस साल
लगता है इस भूचाल का होगा ना ठहराव
सियासत के समंदर की देखो डगमग होती नाव
उन्माद की सियासत में हाल हुए बेहाल
जूते से किया विरोध और करने लगे हलाल
भीतर दबी है आंधियां, है बाहर भी तूफान
देश के इतिहास में है तीसरा ये जूते की मार
सत्ता लालसुओं ये अब तो करो कबूल
फिर भी नहीं सुघरे तो जनता चटवायेगी धूल
जूता चुक गया मस्तक समय बना गंभीर
इन हादसों से तो समझो अब तो जनता की पीर
आप ही मियां मंगते द्वार खडे दरवेश
विश्व पटल पर इस शर्म में दर्ज हो गया देश
अब संमेलन में जाना बदलकर अपना भेष
वर्ना अबकी जनता के हाथों से नहीं बचोगे शेष
नेताओं के सामने लोग आ रहे है सरेआम
ऐसे में इस देश का क्या होगा अंजाम?
चर्चा है इस देश में अब होगी किसकी बारी
जनतंत्र की इस ताकत पर मैं तो जाऊं वारी

देर हो गई

जीवन में हर काम में देर हो गई
सुबह जल्दी उठने में देर हो गई
दोपहर के भोजन में देर हो गई
स्टेशन पहुंचने में देर हो गई
ऑफिस पहुंचने में देर हो गई
मंदिर जाकर मत्था टेकने में देर हो गई
चाहे यह सब बोलो
लेकिन, मरने में देर हो गई
ऐसा कोई नहीं बोल पायेगा

शिक्षा की खरीदी

खुद को शिक्षित
मानने वाले लोगों से
क्या मुझे
इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा?
कि आपने पैसे से शिक्षा खरीदी है,
या शिक्षा से पैसा बनाया है?
यह देश तो ज्ञान बांटने के बावजूद
पैसा न लेनेवाले पंडितों का है
इसमें डोनेशन से ज्ञान खरीदने वाले,
कहां से घुसे?

Tuesday, April 14, 2009

नामर्द

अचानक वह मिला मुझे,
एक अनजान मोड पर
सिलसिला फिर शुरु हुआ
बातों का बातों पर
क्या हाल है इस दिल का?
बस चल रही है जिंदगी
कभी उपवास और कभी रोजों पर
दिल और मन दोनों भूखे है
पेट के नहीं,
प्रेम के, स्नेह के, आशा के
उसने पूछा - क्या मिलेगा
इस तरह के फांको से?
मिलना क्या है, हम तो
आदत डाल रहे है,
उस दिन की जिस दिन,
सब कुछ मिलेगा,
सिर्फ ‘बदले’ के नाम पे
बदला नहीं है लेना
हमारी आंख तो लगी है
सिर्फ ऐसी ही मौत पर
उसने भडकाया - क्या?
बदला लेने से हो डरते?
मर्द नहीं, नामर्द हो तुम मुझको लगते?
हम अगर
नामर्द है तो वे क्या है
जिन्होंने - मुझे डुबोया खून में
रक्षा के नाम पर
जिन्होंने - बो दिया हममें जहर
प्यार के नाम पर
उसने कहां - हां, इस युग में,
मर्दानगी की यही निशानी है
हां! मैं फिर भी नामर्द हूं
पर मुझे अपनी नामर्दी
तुम्हारी मर्दानगी से
अधिक प्यारी है
जय हिंद

Friday, April 10, 2009

जिंदगी क्या है जान जाओगे

ग़ज़ल क्या है, दर्द के समंदर में उतरकर देखो
शेर क्या है, किसी के गम में तडपकर देखो
जिंदगी क्या है, जान जाओगे दु:ख सहकर यारों
खुशी क्या है, इस जहां में तुम दिल लगाकर देखो

राग क्या है, मन की झील में नहाकर देखो
संगीत क्या है, सूरों को दिल में सजाकर देखो
जादू क्या है, जान जाओगे लय में डूबकर देखो
नशा क्या है, आत्मा संग दिल से गाकर देखो

भजन क्या है, प्रभु के शरण में समाकर देखो
सत्संग क्या है, गुरु के वचनों को अपनाकर देखो
बदल जायेगी दु:खों की दुनिया शांति पाओगे यारों
प्रभु की भक्ति में मन को तुम डूबाकर देखो

जीवन क्या है किसी दु:खी को तुम अपनाकर देखो
खुशी क्या है किसी के तुम काम आकर देखो
सुख मिलता है कैसे जीवनभर न समझ पाया कोई
किसी के गम में खुद को तुम लूटाकर देखो

रुप जिंदगी का

अटखेलियां कर रही है जिंदगी ख्वाबों में
और कभी सरक जाती है ये अंधेरों में
एक ख्वाब सजा रक्खा है मैंने दिल में
कभी तो सच होगा ये सच्चे आकार में
भावना, प्यार, द्वैष और तिरस्कार में
कभी यहां-कभी वहां टकरा रही हूं खींचातान में
दूर जगमगा रही है जो उस किरण में
देख रही हूं मैं जिंदगी को उस रूप में