पेड ऊंचे आसमान में हमको बढना सीखलाये
सर्जन के साथ विसर्जन की महिमा ये समझाये
मौन रहकर ये जीवन का संदेश हमें सुनाये
उसकी छाया के नीचे योगी ईश्वर को याद करे
खुद अंगार सहकर शीतलता जग को है देते
जलते मानव शीतलता पाते है उसकी छांव में
ऋषि सखा यह स्थिर खडे है पर उपकार करने
अनुकूलता-प्रतिकूलता में यह बढते है आगे-आगे
हवा और पेडों की जमती स्नेह की यहां पर यारी
वायु की गुदगुदी से गूंजे है स्नेह की मधुर सीतारी
गीता में भगवान कहते है, ‘पेडों में मैं हूं बसता’
उसकी तरह जो जियेगा वो जीवन में सदा रहेगा हंसता
Thursday, April 23, 2009
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2 comments:
खुद अंगार सहकर शीतलता जग को है देते
जलते मानव शीतलता पाते है उसकी छांव में
बहुत ही प्रेरणादायक रचना. शुभकामनाएं.
रामराम.
प्रकृति के इतने शानदार विवेचन के साथ सीख देने वाली रचना पढ़वाने का आभार
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